प्राचिता के नाम

मैं कब से इक नाकाम कोशिश कर रहा हूँ।
प्राचिता तुम्हें लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।।

बेशक़ ज़िंदगी किसी सफ़र से कम नहीं। इस सफ़र में बहुत से लोग मिलते हैं और समय के साथ दूर हो जाते हैं। मगर इसका ये मतलब बिल्कुल भी नहीं हैं कि वो हमसे बिछड़ गये हैं । सच तो ये है कि वो हमारी नज़रों से दूर होकर दिल मे घर कर जाते हैं और ख़ुद को हमेशा के लिए अमर कर जाते हैं।
आज इस कविता के ज़रिए हम, हमारे भूगोल विभाग (डॉ° भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय) की एक उम्दा भूगोलवेत्ता और समाजसेविका स्वर्गीय प्राचिता जी को याद कर रहे हैं। और साथ ही सभी पाठकों से उम्मीद कर रहे हैं कि आप सब भी ज़रूर उनके स्वर्गीय समय की कामना करेंगे।
तो पेश है रिज़वान रिज़ के द्वारा लिखित एक कविता प्राचिता के नाम..

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इस तरह जाना जरूरी था क्या
हमको यूँ रुलाना ज़रूरी था क्या
यूँ रूठ जाना जरूरी था क्या
क्यूँ तुम चुप हो इतना आज
ये चुप्पी मिटाओ न प्रचिता।
तुम आजाओ न प्राचिता।
तुम आजाओ न प्रचिता।

बेहतर थी तुम हम सबसे
तुम आज भी बेहतर हो
हम सबसे..
तुम अपने फ़न में माहिर थी
तुम भाषओं की ज्ञानी थी
तुम याद आती हो प्राचिता।
तुम आजाओ न प्राचिता।
तुम आजाओ न प्राचिता।

हम जब अपने मन में तुम्हारी
तस्वीर बनाने लगते हैं
बेचैन हमारी आँखों से
आँसू आने लगते हैं।
तुम तो हर पल हँसती रहती थीं
हमको भी हँसाओ न प्राचिता।
तुम आजाओ न प्राचिता।
तुम आजाओ न प्राचिता।

कई सवाल अधूरे हैं
कई जवाब अधूरे हैं
तुम्हारे बिना कई इंसान अधूरे हैं
वो जो इक बच्ची का हाथ
थामा था तुमने सदा के लिए
वो तमाम उम्मीदें जो लगी थीं
समाज को तुमसे
वो सारे वादे वो सारी उम्मीदें
देख रही हैं.. तुम्हारा रस्ता।
रस्ते की इस दूरी को
जल्दी से मिटाओ न प्राचिता।
तुम आजाओ न प्राचिता।
तुम आजाओ न प्रचिता।

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- रिज़वान रिज़

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Thankyou...
-Rizwan Riz

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