इंतेज़ार

हम कबसे आस लगाए बैठे हैं।
वो अबतक मुँह फुलाए बैठे हैं।
काश.! वो आएँ मिलने और
हाल पूँछें हमारा
उनके इंतेज़ार में हम
पलकें बिछाए बैठे हैं।

यूँ लगता है मेरी गली से न आएँगे वो
इस क़दर खफ़ा हैं मुझसे वो।
उनके  स्वागत की ख़ातिर हम
पड़ोस की गली सजाए बैठे हैं।

दिल कहता है आएँगे वो
फिर कहता है शायद न भी आएँ। 
बस इसी उलझन में हम घबराए बैठे हैं।

अरसा हुआ अब तो उनसे मिले ‛रिज़वाँ'
न जाने किस बात को वो
दिल से लगाए बैठे हैं।

हम कब से आस लगाए बैठे हैं।
वो अब तक मुँह फुलाए बैठे हैं।

-रिज़वान रिज़

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Thankyou...
-Rizwan Riz

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