ख़ामोशी

अभी सुबह होने ही वाली थी
सब नज़ारे ठहरे-से थे,
मानों कोई रोके हुए था, उजालों को
हर तरफ़ अँधेरे के पहरे-से थे।
कई पेड़ सो रहे थे
कुछ तो नींद में उलझे थे,
शायद हवा चाहती थी जगाना
कहाँ मगर वो सुनते थे।

नीले-काले अम्बर में
इक चाँद दिखाई देता था,
हाँ, वो कुछ ज्यादा चमक रहा था
पर कुछ और सितारे चमक रहे थे।
सूरज अभी नहीं जगा था
पंछी कुछ ना गाते थे,
तालाब, पेड़ सब जीव-जंतु
इक मौन को धारण करते थे।

इक अद्भुत-सा एहसास था उस दिन
जब निकला रात को मैं खुशी-खुशी में
हर पल इतना शांत था जैसे
डूब गया हो संसार ही सारा
ख़ामोशी में।

- रिज़वान रिज़

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