इश्क़ की राह में सबकुछ लुटाना पड़ता है

इश्क़ की राह में सबकुछ लुटाना पड़ता है
ख़ुश्क आँखों से दरिया बहाना पड़ता है।
दीदार-ए-महबूब रोग ही कुछ ऐसा है
वो बुलाएं न बुलाएं, हमें जाना पड़ता है।

डर रहता है आँखें कहीं नम न हो जाएं
रो-रो के उनकी छाती कहीं कम न हो जाए।
उनके लबों की मुस्कुराहट की ख़ातिर
दर्द-ए-दिल में भी हमें मुस्कुराना पड़ता है।

मुहब्बत में मज़ा बहुत है, ये खेल निराला है
इसमे कभी रूठना कभी मनाना पड़ता है।
रातभर छिपाते हैं राज़-ए-दिल उनसे
सहर नहीं होती कि, सबकुछ बताना पड़ता है।

उनकी हर बात सिर-आँखों पे होती है
अनचाही बातों को भी अपनाना पड़ता है।
ज़िंदगी से कोई वादा हो तो मुकर भी जाएं
वादा-ए-वफ़ा हो तो, हरगिज़ निभाना पड़ता है।

हम जानते हैं मुहब्बत और ज़हर में फ़र्क 'रिज़वाँ'
मगर पिलाने वाला अपना हो तो..
इस बारीक़ी को ज़रा छिपाना पड़ता है।

-रिज़वान रिज़

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