चलते हैं जब कभी तनहा।

चलते हैं जब भी कभी तनहा
तेरी याद आ जाती है
पहले तो मुस्कुराते हैं हम
फिर उदासी छा जाती है।

हर बार सोचता हूँ भूल जाऊँ अब तुझे
ज़रा-सी देर नहीं होती
कोई न कोई तेरी अदा याद आ जाती है।

चलती है जब भी कभी अँधरे में ठंडी हवा
तेरे साथ वो बरसात की रात याद आ जाती है।

कभी खोलता हूँ कभी बंद करता हूँ आँखे
सोचता हूँ राहत मिलेगी तेरी यादों से
पर तू तो जैसे कोई ख़्वाब है नींदों में आ जाती है।

निकलते हैं रोज़ दीदार-ए-मेहबूब की ज़ानिब
कोई न कोई आफ़त रस्ते में आ जाती है
अब तो यूँ जी रहे हैं अरसों से "रिज़वाँ"
कभी-कभी नहीं आती कभी साँस आ जाती है।

-रिज़वान रिज़

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