कुछ ख़्वाबों के लिए
सपने तो नहीं तोड़ सकता
अजनबी आज मिले हैं
काल फिर मिलेंगे
इनके लिए अपने तो नहीं छोड़ सकता।
तुम रहते हो संगेमरमर के
अलिसां मकानों में, तो रहो
मैं इनके लिए
घर तो नहीं छोड़ सकता।
आज ये आसमाँ भी शिकारी-सा लगता है
हर तरफ जाल बिखरे हैं
मगर मैं मस्त परिंदा हूँ
अपनी उड़ान तो नहीं छोड़ सकता।
वो अँधेरों से डराते हैं मुझे
जिन्हें सिर्फ़ उजाले अच्छे लगते हैं
मगर मैं जलता दीपक हूँ
अपनी तली तो नहीं छोड़ सकता।
कल किसी ने ये कहा था
'रिज़वाँ' तुम अच्छा लिखते हो
तब से कुुुछ बेचैन हूँ पर
अब लिखना तो नहीं छोड़ सकता।
-रिज़वान रिज़
One of the best poem. ...☺☺
ReplyDeletethanks dear reader..
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