यक़ीनन हमें तुमसे नफ़रत नहीं है।

यक़ीनन  हमें  तुमसे  नफ़रत नहीं हैं।
मगर दिल को तुमसे मुहब्बत नहीं है।

हमें  इश्क़  है  बस  हमारे  सनम  से।
किसी  और की अब ज़रूरत नहीं है।

बैठे  हैं  कब से  हम राहों में  जिनकी।
उन्हें हमसे मिलने की मोहलत नहीं है।

अमीरों की बस्ती चमकती गलियों में।
ग़रीबों को आने की  इजाज़त नहीं है।

माना  कि  कांधों पर  बोझ  बहुत  है।
मुझे  सिर  झुकाने  की आदत नहीं है।

झूठ  को  बेचके , सच  खरीदने वाले।
बेईमानों  के  घरों  में  बरकत  नहीं है।

तेरे जिस्म से हम बेबसी  में  हैं लिपटे।
ये  सच्ची  मुहब्बत है  वहशत  नहीं है।

मरते  रहे   हैं   जो  हरदम  वतन  पर।
उन्हीं  के  दामन  में  शोहरत  नहीं  है।

तू  है  बादशाह फ़क़त  इक  महल का।
तू जिसका ख़ुदा है वो खलकत नहीं है।

तुम इतनी नफ़रत में ज़िंदा हो अबतक।
क्या तुम पर ख़ुदा की ये रहमत नहीं है?

जो देखता है, वो ही लिखता है ‛रिज़वाँ’
क्या इसको ज़रा-सी भी दहशत नहीं है?

- रिज़वान रिज़

*खलकत - सृष्टि, संसार

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